उत्तरायणी उत्तराखण्ड का प्रमुख पर्व है, इसे मकर संक्रांति का त्यौहार व उत्तरायणी, उत्तरैण, घुघति त्यार आदि नामों से भी जाना जाता है। उत्तरायणी शब्द उत्तरायण से बना है। प्राचीन समय में समय के मापने की कई इकाईयां बनायी गयी थीं। संक्रांति का यह पर्व केवल उत्तराखण्ड में ही नहीं बल्कि देश के अनेक प्रांतों व पड़ोसी देश नेपाल में भी अलग-अलग नामों व रीति-रीवाजों के साथ मनाया जाता है। हालांकि बदलते समय के साथ त्यौहारों की चमक भी फीकी पड़ी है, लेकिन घुघति पर्व को लेकर आज भी लोगों में काफी उत्साह है।
याम, तिथि, पक्ष, मास, ऋतु और अयन, एक अयन में तीन ऋतुएं व छह मास होते हैं। उत्तरायण मतलब जब पौष माह में सूर्य उत्तर की ओर जाना शुरू होता है। यह उत्तर और अयन शब्दों की संधि से बना है, उत्तर+अयन अर्थात उत्तर में गमन। उत्तरायण का आरम्भ 21 या 22 दिसंबर से होता है और 22 जून तक रहता है। यह सवाल पैदा होना लाजमी है कि तब 14-15 जनवरी को उत्तरायणी के दिन से सूर्य का उत्तरायण की दिशा में जाना क्यों माना जाता है और क्यों इसी दिन उत्तरायणी या मकर संक्रान्ति का त्यौहार मनाया जाता है? लगभग 1800 साल पहले इसी दिन सूर्य उत्तरायण में जाने की स्थिति में होता था शायद इसीलिए इस दिन से उत्तरायणी का त्यौहार मनाये जाने की परम्परा आज भी जारी है।
उत्तरायण को शुभ माना जाता है, इसीलिए महाभारत में भीष्म पितामह जब अर्जुन के बाणों से घायल हुए तो दक्षिणायण की दिशा थी। भीष्म ने अपनी देह का त्याग करने के लिए उत्तरायण तक सर शैय्या पर ही विश्राम किया था। माना जाता है कि उत्तरायण में ऊपरी लोकों के द्वार पृथ्वीवासियों के लिए खुल जाते हैं। इस समय देश के सभी हिस्सों में विभिन्न त्यौहार मनाये जाते हैं। इस मौके पर ही उत्तराखण्ड में उत्तरायणी का त्यौहार मनाया जाता है। मकर संक्रान्ति से पूर्व की रात से ही त्यौहार मनाना शुरू हो जाता है। इस दिन को मसांत कहा जाता है, यानि त्यौहार की पूर्व संध्या, इस दिन हर शुभ अवसर की तरह बड़ुए और पकवान बनाये-खाए जाते /हैं। इसी रात हर घर में घुघुत बनाये जाते हैं और बच्चों के लिए घुघुत की मालाएं भी तैयार कर ली जाती हैं। पहाड़ के तमाम स्थानों पर उत्तरायणी का कौतिग/मेला लगता है और लोगों को इस दिन का बेशब्री से इंतजार रहता है। हालांकि कोरोना महामारी के कारण बीते दो वर्षों से लोग पूरी तरह त्यौहार नहीं मना पा रहे है। फिर भी घर-घर में घुघते जरूर बनाये जाते है। ये घुघुत हिंदी के ४ के आकार के साथ ढाल-तलवार, फूल, डमरू तथा खजूर आदि की आकृतियों के बनाये जाते हैं। घुघुतों को कई दिनों तक के खाने के अलावा नाते-रिश्तेदारों और पड़ोसियों को बांटने के लिए भी बनाया जाता है।
पुराने समय में इस दिन रात भर जागकर आग के चारों ओर लोकगीत व लोकनृत्य आयोजित किये जाते थे। रात भर जागकर अलसुबह ब्रह्म मुहूर्त में आस-पास की नदी, नौलों व गधेरों में नहाने के लिए निकल पड़ने की परंपरा हुआ करती थी। रात्रि जागरण की यह परंपरा अब लुप्त हो चुकी है लेकिन सुबह स्नान करने की परंपरा आज भी कायम है। इस दिन उत्तराखण्ड की सभी पवित्र मानी जाने वाली नदियों में लोग स्नान के लिए जुटते हैं। कई नदियों के तट पर ऐतिहासिक महत्त्व के मेले भी लगा करते हैं।
स्नान करने के बाद घरों में पकवान बनना शुरू हो जाते हैं। मसांत में बनाये गए घुघुतों को सबसे पहले कौवों को खिलाया जाता है। घुघुतों को घर, आंगन, छत की ऊंची दीवारों पर कौवों के खाने के लिए रख दिया जाता है। इसके बाद बच्चे जोर-जोर से ‘काले कौव्वा का-ले, घुघुति माला खाले!’ की आवाज लगाकर उन्हें बुलाते हैं। बच्चे मनगढ़ंत तुकबंदियां बोलकर कौवों से तोहफे भी मांगते हैं।
लै कावा भात, में कै दे सुनक थात!
लै कावा लगड़, में कै दे भैबैणों दगड़!
लै कावा बौड़ में, कै दे सुनौक घ्वड़!
लै कावा क्वे, में कै दे भली भली ज्वे!
कौवों के आकर खा लेने तक उनका इन्तजार किया जाता है। उत्तरायणी में कौवों को खिलाने की परंपरा के बारे में कई जनश्रुतियां एवं लोककथाएँ प्रचलित हैं।
-राजेन्द्र सिंह क्वीरा